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गुरुवार, 15 मार्च 2012

आम आदमी की हैं यह ‘ममता’



रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी के रेल बजट पेश करने के कुछ ही घंटों के भीतर बढ़े हुए किराए को लेकर तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने जिस तरह के तीखे तेवर दिखाए, उससे यह साबित होता है कि ममता केवल नाम की ही ममता नहीं हैं। उनके दिल में महंगाई और भ्रष्‍टाचार से जूझ रही आम जनता के लिए भी भरपूर ममता है। वे उसे राहत पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगी।
यह सच है कि पिछले नौ साल में रेल किराए में कोई सीधी बढ़ोत्‍तरी नहीं हुई मगर इस एक दशक में महंगाई की रेल  बेलगाम हो गई है। पेट्रोल,डीजल और रसोई गैस की कीमतें सुरसा के मुंह की तरह बढ्रती ही जा रही है। ये बढी कीमतें हर चीज को महंगा कर देती हैं। आम नौकरीपेशा,मेहनतकश और गरीब तबके की कमर ही टूट जाती है। ऐसे में यदि इतने साल में रेल किराए नहीं बढ़े थे,तो इस बढोत्‍तरी को जायज ठहराने वाले जरा यह सोचें कि आप और हम एक साल में कितनी मर्तबा रेल से लम्‍बी दूरी की यात्राएं करते हैं। शायद दो,चार,पांच या अधिक से अधिक दस बार।अधिकतर लोग इसी दायरे में आते है।
अब महंगाई की तुलना में इसे देखिए। एक साल में घर में कितने सिलेंडर खर्च हो जाते हैं। पप्‍पू कॉलेज जाने के लिए अपनी मोटर साईकिल में पेट्रोल भरवाने के लिए पापा से हर महीने अब और ज्‍यादा पैसे की डिमांड करने लगा है। गली में सब्‍जी बेचने आने वाले रामू काका से जब संतो की मां सब्‍जी के भाव हर दूसरे दिन बढ़ा देने को लेकर सवाल करती है,तो काका यही कहते हैं,डीजल के दाम बहनजी कहां से कहां पहुंच गए। मंडी में महंगा बिकेगा,तो हम क्‍या करें। रेल किराए की मार तो यात्रा करने पर पड़ती है, वहीं महंगाई का असर हर रोज आम आदमी की रेल बना दे रहा है।
मौजूदा रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी यह कहते फूले नहीं समा रहे कि रेलवे आईसीयू में पड़ी है,उनके इस साहसिक कदम से उसे नया जीवन मिलेगा। किराया बढ़ाने को लेकर उनका यह तर्क भी गले नहीं उतरता कि यदि ऐसा नहीं किया जाता ,तो स्‍टाफ को सैलरी देना भी मुश्किल हो जाएगा।
मेरी तरह आपको भी शायद यह समझ नहीं आता होगा कि रेल में महीनों पहले आसानी से रिजर्वेशन नहीं मिलता। लंबी-चौड़ी वेटिंग लिस्‍ट होती है। तत्‍काल कोटा में सीटें ओपनिंग के पांच मिनट के भीतर ही फुल हो जाती हैं। जनरल कोचों की बात तो छोड़ ही दीजिए रिजर्वेशन डिब्‍बे में भी यात्रियों की अधिकतम संख्‍या से कई गुणा ज्‍यादा यात्री सफर करते हैं। बावजूद इसके कि वे सकुशल अपने गंतव्‍य तक पहुंचेंगे या नहीं।
फटी हुई धूल जमी सीटें,गंदे टॉयलेट और धीमी गति से चलने का रिकॉर्ड बनाने पर आमादा पंखे। यही है सुविधाओं की बानगी। रेलमंत्री जी ने कमेटियों की किराया बढ़ाने की सिफारिशें तो खूब मानीं,लेकिन महज किराया बढ़ाने से आगे अन्‍य सिफारिशें केवल कागजों में ही धूल खाती रहेंगी। आम लोगों की तो यही राय है।
हालांकि ममता ने जो किया भले ही उसे अखबार और टीवी चैनल राजनीति के चश्‍मे से देख रहे हों, मगर यह कहना गलत न होगा कि परिवहन के साधनों के किराए बढ़ा देना ही सरकारों को घाटे से निपटने का सबसे बेहतरीन रास्‍ता नजर आता है। दिनेश त्रिवेदी को साहसी तब कहा जाता जब वे बिना किराया बढ़ाए उपलब्‍ध साधनों का सर्वोत्‍तम उपयोग करते हुए रेलवे को आईसीयू से नॉर्मल वॉर्ड में ले आते। भारतीय रेल विज्ञापन और ब्रांड प्रमोशन के लिए कॉरपोरेट को साध उनके लिए बेहतर प्‍लेटफॉर्म उपलब्‍ध करवा सकती है। वहीं,इससे उसका खजाना हमेशा भरा रहेगा। हालांकि,इस पूरे प्रकरण ने यह साबित जरूर कर दिया है कि उनके लिए मां,माटी,मानुष का हित सर्वोपरि है। शायद इसीलिए ममता दीदी का यह कदम आम लोगों को बुरा नहीं लगा बल्कि वे तो यही कह रहे हैं कि काश हर नेता इसी तरह आम आदमी पर थोड़ी ममता बरसाता।  

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